लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर कथित ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाते हुए बिहार में ‘वोट अधिकार यात्रा’ की शुरुआत कर दी है। राजद नेता तेजस्वी यादव उनके साथ इस अभियान में मंच साझा कर रहे हैं। राहुल गांधी का कहना है कि यह लड़ाई संविधान बचाने की है। वह रैलियों में चुनाव आयोग और मोदी सरकार दोनों पर एक साथ निशाना साध रहे हैं।

राहुल ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए आरोप लगाया कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के बीच वहां मतदाताओं की संख्या में लगभग 1 करोड़ का अंतर दिखा। उन्होंने दावा किया कि यह चुनाव आयोग की ‘जादुई करतूत’ है। हालांकि इस दावे को आधार देने वाले सेफोलॉजिस्ट संजय कुमार ने बाद में अपनी गलती मानते हुए ट्वीट वापस ले लिया। उनकी गलती दबाव में थी या वास्तविक भूल, यह अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन इस घटनाक्रम ने चुनाव विश्लेषकों की साख पर भी सवाल खड़े कर दिए।

इस बीच मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर राहुल गांधी के आरोपों को बेबुनियाद बताया। उन्होंने राहुल से शपथपत्र देकर सबूत पेश करने को कहा ताकि जांच हो सके। आयोग का तर्क है कि बेबुनियाद आरोप न केवल आयोग बल्कि संविधान का भी अपमान है। बीजेपी भी चुनाव आयोग के साथ खड़ी है।

फिर भी राहुल गांधी का मुद्दा चर्चा में है। दरअसल, आज़ादी के बाद शायद यह पहला मौका है जब चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर इतनी गंभीर चुनौती दी गई है। आरोप सही हैं या गलत, यह जांच के बाद ही साबित हो सकता है, लेकिन जांच की संभावना फिलहाल कम है।

विपक्ष की रणनीति और बिहार चुनाव

राहुल और विपक्ष का असली लक्ष्य बिहार विधानसभा चुनाव को ‘वोट चोरी’ के मुद्दे पर केंद्रित करना दिख रहा है। उनका प्रयास है कि मतदाताओं के मन में यह शंका बैठ जाए कि मतदाता सूची में हो रहा विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) दरअसल एक सोची-समझी साजिश है। विपक्ष का आरोप है कि इस प्रक्रिया में खासकर उसके समर्थक मतदाताओं के नाम सूची से हटाए जा रहे हैं।

चुनाव आयोग का जवाब है कि यह सामान्य प्रक्रिया है और केवल अप्रमाणित नाम हटाए गए हैं। यदि किसी का नाम गलती से कट गया है, तो उसे दोबारा जोड़ा जा सकता है। इसके बावजूद विपक्ष का तर्क है कि बिहार एसआईआर में 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए जाना कोई छोटी बात नहीं है। औसतन हर विधानसभा सीट पर करीब 27 हजार वोटर कम हुए हैं। इतनी संख्या चुनावी परिणाम को पलट सकती है।

विपक्ष का दूसरा बड़ा जोखिम यह है कि लगातार गड़बड़ी का माहौल बनाकर कहीं वह मतदाताओं को निराश न कर दे। यदि जनता को लगे कि सब कुछ पहले से तय है, तो वह वोट डालने ही न जाए। यह स्थिति विपक्ष के लिए भी नुकसानदेह होगी और लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक।

धारणा बनाम हकीकत

यह सवाल भी अहम है कि आखिर राहुल गांधी ने इस मुद्दे को क्यों चुना? जवाब राजनीति की मूल प्रकृति में है। राजनीति में धारणा (परसेप्शन) प्रमाण से ज्यादा असरदार होती है। बोफोर्स घोटाले से राजीव गांधी को घेरना हो या मनमोहन सिंह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप—अक्सर विपक्ष ने मुद्दों की धारणा बनाकर ही चुनावी नतीजे बदले हैं।

आज राहुल गांधी भी उसी फार्मूले को आज़मा रहे हैं। वह चाहते हैं कि मतदाता मान ले कि चुनाव आयोग सरकार के पक्ष में काम कर रहा है और इस कारण सत्ता बदलना जरूरी है। जीतने पर कोई सबूत मांगने वाला नहीं होगा, और हारने पर विपक्ष कह सकेगा कि उसने पहले ही चेताया था कि चुनाव आयोग और सरकार मिलीभगत कर रही थी। यानी हर हाल में विपक्ष राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करेगा।

चुनौतियां राहुल गांधी के सामने

राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, संगठित रणनीति की कमी। मोदी विरोधी भले ही उनकी हिम्मत की तारीफ करते हों कि वह खुलकर चुनाव आयोग और पीएम पर हमला कर रहे हैं, लेकिन उनकी कार्यशैली कई बार बिखरी हुई दिखती है। ‘चौकीदार चोर’, ‘ईवीएम हैकिंग’ और ‘जाति जनगणना’ जैसे मुद्दों से उन्हें अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। ‘संविधान बचाओ’ का नारा जरूर लोकसभा चुनाव में कुछ जगह असरदार रहा, लेकिन उसे लगातार खींचना आसान नहीं है।

दूसरी ओर, बीजेपी और एनडीए बिहार में लोकलुभावन योजनाओं के सहारे विपक्ष की धारणा-राजनीति का जवाब दे रहे हैं। यह भी संभव है कि चुनाव से पहले बिहार में ‘लाडली बहना’ जैसी कोई योजना घोषित कर दी जाए। ऐसे में जनता को तत्काल लाभ और लंबी राजनीतिक दलीलों के बीच चुनाव करना होगा।

निष्कर्ष

बिहार चुनाव इस बार सिर्फ राजनीतिक दलों की ताकत की परीक्षा नहीं है, बल्कि मतदाता के विश्वास का भी इम्तिहान है। जनता को तय करना है कि वह ‘वोट चोरी’ के आरोपों पर भरोसा करती है या चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर।

चुनाव आयोग के लिए भी यह समय बेहद अहम है। उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं और उसका हर कदम लोकतंत्र की मजबूती या कमजोरी तय करेगा। बेहतर होता कि आयोग शपथपत्र मांगने से आगे बढ़कर खुद स्वतंत्र जांच कराता और पूरी पारदर्शिता दिखाता।

इतिहास गवाह है कि चुनाव प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है, और उसमें कुछ त्रुटियां हमेशा रही हैं। 1951-52 के पहले आम चुनाव में भी 27 लाख नाम गलत हटे थे, लेकिन उस समय किसी ने संस्थाओं पर अविश्वास नहीं किया। आज हर कदम संदेह के घेरे में है।

आख़िरकार, यह चुनाव यह भी तय करेगा कि बिहार की जनता किस पर भरोसा करती है ‘वोट चोरी’ के नारे पर या लोकतंत्र की संस्थाओं की साख पर।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *