भारत और अमेरिका में जारी तनाव के बीच भारत और चीन के संबंधों में सुधार को होते दिख रहा हैं। 2020 में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव के बाद ढह चुके भारत-चीन संबंध अब धीरे-धीरे स्थिरता और पुनर्निर्माण की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। बीते वर्ष अक्टूबर में कज़ान शिखर वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई बातचीत ने इस दिशा में माहौल तैयार किया था।

विशेषज्ञों के अनुसार, दोनों देशों के रिश्तों में आई खाई केवल सीमा विवाद का नतीजा नहीं थी, बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्य का भी असर था। अमेरिकी प्रभुत्व वाले एकध्रुवीय विश्व से बहुध्रुवीय विश्व की ओर तेज़ी से हो रहे बदलाव, अमेरिका और यूरेशियाई ताकतों के बीच संतुलन कायम करने की जद्दोजहद और उसका प्रतिफल भारत-चीन संबंधों पर सीधे तौर पर पड़ा।

भारत की दुविधा: साहस बनाम सतर्कता

भारत की चीन नीति के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही कि क्या वह “साहसिक” कदम उठाए या “सतर्कता” की राह पर चले। पिछले दशक में भारत इन दोनों के बीच झूलता रहा, जिसके कारण भू-राजनीतिक स्थिति अस्थिर होती गई।

इस बीच उत्तरी सीमाओं का सैन्यीकरण, चीन-पाकिस्तान की गहराती सैन्य साझेदारी और अमेरिका की ओर से उपमहाद्वीप में भारत की स्थिति को कमजोर करने के प्रयासों ने हालात और जटिल कर दिए। विश्लेषकों का मानना है कि यह कोई गुजरता हुआ तूफान नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में हो रहे स्थायी बदलावों का हिस्सा है।

इतिहास से सबक

इतिहास में कई बार प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों ने संघर्ष के बाद संबंध सुधारने का रास्ता अपनाया है। 1970 के दशक में अमेरिका-चीन संबंधों का सामान्यीकरण और 1980 के दशक में चीन-सोवियत संघ का सामंजस्य इसका उदाहरण है। हालांकि, भारत और चीन के बीच फिलहाल ऐसी परिस्थितियां नहीं बनी हैं कि किसी “बड़े समझौते” की उम्मीद की जा सके।

नई नीति बहस में तीन अहम बिंदु

भारत-चीन संबंधों पर चल रही बहस में तीन प्रमुख बिंदु उभरकर सामने आ रहे हैं—

  1. अमेरिकी सुरक्षा ढांचे का विकल्प
    भारत का अनौपचारिक लक्ष्य एशिया में अमेरिकी नेतृत्व वाले सुरक्षा ढांचे का हिस्सा बनना अब व्यावहारिक नहीं है। अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व कमजोर हो चुका है, और किसी गठबंधन का हिस्सा बनने का अर्थ होगा भारत की संप्रभुता और नियंत्रण में कमी।
  2. आर्थिक साझेदारी की नई संभावनाएं
    वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में भारत के पास मानव संसाधन, बाजार और औद्योगिक क्षमता जैसी कई ताकतें हैं। चीन के साथ एक व्यापक आर्थिक खाका तैयार कर, परस्पर लाभकारी रिश्ते बनाए जा सकते हैं। साथ ही, ब्रिक्स जैसे बहुपक्षीय मंचों को भी ठोस दिशा दी जा सकती है।
  3. परिधीय क्षेत्रों में शांति की जरूरत
    भारत और चीन दोनों का साझा हित इस बात में है कि उनके आसपास के क्षेत्रों में शांति कायम रहे। भले ही “ग्रैंड बार्गेन” संभव न हो, लेकिन परस्पर प्राथमिकताओं को मान्यता देकर एक-दूसरे को कुछ “स्पेस” देना दोनों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत-चीन संबंधों में कोई “निक्सन पल” या “देंग शियाओपिंग जैसी दूरदर्शी नेतृत्वकारी नीति” फिलहाल संभव नहीं है। ऐसे में व्यावहारिक कदमों के जरिये धीरे-धीरे सामान्यीकरण ही एकमात्र रास्ता है। आने वाले महीनों में दोनों देशों की नेतृत्व वार्ताएं इसी संतुलन और परस्पर मान्यता के आधार पर आगे बढ़ सकती हैं।

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